रचनाकर पीथल की पुस्तक डिंगल में वीरस के पृष्ठ संख्या 41 पर दो पंक्तियां हैं, जो खासकर मेवाड़ में काफी लोकप्रिय है। वह इस प्रकार है…
माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राणा प्रताप।
अकबर सूतो ओझकै, जाण सिराणै साँप॥
इस पंक्तियों का अर्थ है कि हे माता! ऐसे पुत्र को जन्म दे, जैसे राणा प्रताप हैं। जिन्हें सिरहाने का साँप समझ कर सोता हुआ अकबर भी चौंक पड़ता है।
जी हॉं! यह कहानी है वीरता, शौर्य, त्याग, पराक्रम, स्वाभिमान और मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन अर्पण कर देने वाले हिन्दूआ सूरज, मेवाड़ रत्न, वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप की। जिन्होंने आजीवन कभी भी मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं की और कई बार मुगलों को युद्ध में भी हराया।
महाराणा प्रताप का जन्म
महाराणा प्रताप का पूरा नाम महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया था। वे मेवाड़ राजवंश के शासक थे। जो सिसादिया वंशीय थे। इस वंश बप्पा रावल, राणा कुंभा, महाराणा संग्राम सिंह जैसे वीर हुए थे। महाराणा प्रताप का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया रविवार विक्रम संवत 1597 तदनुसार 9 मई 1540 – 19 जनवरी 1597 को राजसमंद जिले के कुंभलगढ़ महल में महाराणा उदयसिंह एवं माता रानी जयवन्ताबाई के घर हुआ था। कुछ इतिहासकारोंं का यह भी मत है कि उनका जन्म पाली जिले के राजमहलों में यानी उनके मामा के घर पर हुआ था। लेकिन कर्नल जेम्स टॉड के मत कि महाराणा प्रताप का जन्म कुंभलगढ़ महल में हुआ था, को ज्यादा मान्यता दी गई है।
महाराणा प्रताप को बचपन में कीका नाम से पुकारा जाता था। इसके पीछे का कारण यह था कि महाराणा प्रताप का बचपन भील समुदाय के साथ बिता था। उन्हीं के साथ वे युद्ध कला सीखते थे। चूॅंकि भील अपने पुत्र को कीका कहकर पुकारते हैं इसलिए वे महाराणा प्रताप को भी कीका नाम से पुकारते थे।
कहा जाता है कि महाराणा प्रताप की महारानी अजबदे पंवार सहित कुल 11 पत्नियाँ थीं। उनके जयेष्ठ पुत्र का अमर सिंह था जो बाद में मेवाड़ का शासक बना था। किवंदती के अनुसार उनके 17 पुत्र थे।
महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक
महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक 28 फरवरी, 1572 को गोगुन्दा में हुआ था, कहा जाता है कि विधि विधानस्वरूप महाराणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक 1572 ई. में ही कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ, जहां जोधपुर के शासक राव चन्द्रसेन भी मौजूद थे। सन् 1572 में मेवाड़ के सिंहासन पर बैठते ही उन्हें कई संकटों का सामना करना पड़ा। इसमें प्रमुख मुगल शासक अकबर के साथ उनका संघर्ष था। लेकिन स्वाभिमानी राणा प्रताप ने धैर्य और साहस के साथ हर विपत्ति का सामना किया और जीवन भर मुगलों से संघर्ष करते रहे।
महाराणा प्रताप और अकबर
मुगल शासक अकबर महाराणा प्रताप को अपने अधीन लाना चाहता था लेकिन वह इसके लिए युद्ध भी नहीं चाहता था। इसके लिए उसने महाराणा प्रताप से संधि करने के लिए 4 राजदूत भेजे। जिसमें सबसे पहलले सितम्बर 1572 ई. में जलाल खाँ प्रताप के खेमे में गया, इसके बाद 1573 ई. में मानसिंह, भगवानदास और राजा टोडरमल भी राणा प्रताप से संधि के लिए गए लेकिन महाराणा प्रताप ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से इनकार कर दिया। परिणामस्वरूप 18 जून 1576 ईस्वी में हल्दी घाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ, जिसमें राणा प्रताप की सेना ने मुगल सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया। इस युद्ध में महाराणा प्रताप का प्रिय घोड़ा चेतक गंभीर घायल हो गया।
हल्दीघाटी का युद्ध
हल्दीघाटी का युद्ध भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। हल्दीघाटी का युद्ध वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप और मुगल की सेना के बीच 18 जून 1576 को लड़ा गया था। राजसमंद जिले के नाथद्वारा के पास खमनोर नामक एक गांव है, इसी के पास हल्दीघाटी और रक्तमलाई स्थित है। इतिहास के अनुसार इसी रक्ततलाई और हल्दीघाटी में यह भीषण युद्ध हुआ था। इस युद्ध में मुगल की ओर से आमेर के राज मानसिंह प्रथम सेना का नेतृत्व कर रहे थे जबकि मेवाड़ की ओर से हकीम खॉं सूरी सेनापति थे।
बताया जाता है इस युद्ध में मेवाड़ की ओर से मात्र 20 हज़ार सैनिकों ने मुगलों की 80 हज़ार की सेना का डटकर सामना किया था। इस युद्ध में मेवाड़ की सेना का मुख्य नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। भील सेना के सरदार राणा पूंजा भील थे। युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार हकीम खाँ सूरी थे। हल्दीघाटी का युद्ध पूरे एक दिन चला था, जिसमें बड़ी संख्या में मुगल सैनिक घायल हो गए और अंतत: उन्हें पीछे हटना पड़ा। कुछ इतिहासकार बताते हैं कि इस युद्ध का कोई निर्णय नहीं निकला था लेकिन एक पक्ष यह भी है जो कहता है कि इस युद्ध में महाराणा प्रताप विजयी रहे थे क्योंकि युद्ध में मुगल सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा था और पहाड़ियों में छिपना पड़ा था।
हालांकि इस युद्ध में महाराणा प्रताप बूरी तरह से घायल हो गए थे। उनका प्रिय घोड़ा चेतक बनास नदी का नाला पार करते वक्त गिरकर घायल हो गया और बाद में उसकी मृत्यु हो गई।
जंगलों में जीवनयापन और भामाशाह का दान
हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात राणा प्रताप के पास धन सम्पदा खत्म हो गई थी। राज्य आर्थिक विषमताओं से गिर गया। मेवाड़ पर मुगलों का शासन हो गया। ऐसे में महाराणा प्रताप को जंगलों में जीवन तक व्यक्ति करना पड़ा। कहा जाता है कि उस दौरान महाराणा प्रताप को घास की रोटी तक खानी पड़ी थी। लेकिन राणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि वे जब तक मेवाड़ को मुगलों से आज़ाद नहीं करवा लेते, राजसी जीवन व्यतीत नहीं करेंगे।
इसके बाद महाराणा प्रताप के पुराने मित्र भामाशाह ने अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति मेवाड़ के स्वाभिमान के लिए दान कर दी। जिससे महाराणा प्रताप को हिम्मत मिली और उन्होंने फिर से सेना का गठन किया और अन्तत: मेवाड़ को आज़ाद कराकर ही मानें। इसके बाद उन्होंने उदयपुर जिले के चावंड को मेवाड़ की नई राजधानी बनाया और अपने जीवन के अंतिम दिनों तक वहीं रहें।
महाराणा प्रताप की मृत्यु
महाराणा प्रताप की मृत्यु राजधानी चावंड में 57 वर्ष की उम्र में 29 जनवरी, 1597 को हुई थी। बताया जाता है कि धनुष की डोर खींचने से उनकी आंत में चोट लग गई थी जिसके बाद वे बीमार पड़ गए। इसके साथ ही साहस, स्वाभिमान और वीरता के एक युग का अंत हो गया।
कहा जाता है कि महाराणा प्रताप की मृत्यु पर अकबर ने भी दुख व्यक्त किया था और उनके मृत्यु की खबर सुनकर उसके आंखों में आंसू आ गए थे।