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अच्छी शिक्षा के लिए कोटा आ रहे छात्र क्यों कर रहे हैं आत्महत्या?

आत्महत्या

मध्यप्रदेश और राजस्थान की सीमा पर स्थित शहर कोटा कभी च़ुनरी, किले महलों और लघु उद्योग के लिए जाना जाता था। लेकिन अब कोटा की पहचान यहां तेजी से फैलते कोचिंग इंडस्ट्रीज की वजह से ज्यादा है। अचानक कोटा की पहचान इन कोचिंग इंडस्ट्रीज ने कैसे बदल दी। आज का युवा प्रतियोगी परीक्षा के लिए कोटा जाने की ही बात क्यों कहता है? इन सबके पीछे एक ही शख्स का नाम आता है वह हैं वीके बंसल। जिन्होंने लालटेन की रोशनी में पढ़ाई की और जिन्हें एक लाइलाज बीमारी के कारण अपनी अच्छी-ख़ासी नौकरी तक छोड़नी पड़ी।

बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में वीके बंसल बताते हैं कि “जब मैं पढ़ता था तो हमारे घर में बिजली नहीं थी। केरोसिन वाली लालटेन की रोशनी में पढ़ाई होती थी। मेरी आंखें जब इस बारे में सवाल पूछतीं तो पिताजी कहते थे कि बेटा खूब पढ़ोगे, आगे बढ़ोगे तभी तुम्हारे घर में बिजली आएगी। बस बिजली के उजियारे की चाहत ने मुझमें मेहनत करने की ताकत भर दी।

कोटा कैसे बन गया कोचिंग हब?

मस्क्यूलर डिस्ट्रोफी नामक एक लाइलाज बीमारी के बाद कोटा की जेके सिंथेटिक्स फैक्ट्री में सहायक इंजीनियर पद पर काम करने वाले बंसल को 1991 में नौकरी छोड़नी पड़ी। जब वीके बंसल घर आ गए तब उन्हें कोचिंग सेंटर खोलने का ख्याल आया। हालांकि इससे पहले भी वे अपने घर पर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाया करते थे। फिर इन्होंने 1991 में कोटा में बंसल कोचिंग की शुरुआत की। कोचिंग संस्थान के पहले ही साल में बंसल कोचिंग से 10 छात्रों का आईआईटी में सलेक्शन हो गया। इसके बाद इसके अगले साल में 50 छात्र आईआईटी में इनकी कोचिंग से चुने गए, इसके बाद कारवां चल पड़ा और कोटा का नाम लोगों की जुबान पर आने लगा। कोटा को कोचिंग हब बनाने वाले वीके बंसल का देहांत 75 वर्ष की आयु में 3 मई 2021 को हुआ था। उनका जन्म झांसी में हुआ था और वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग में पास आउट थे।

बंसल क्लासेज के वीके बंसल की कामयाबी को देखते हुए अनेक लोगों की नजर कोचिंग व्यवसाय की ओर गई और उन्होंने कोटा में कोचिंग सेन्टर शुरू किए। आज कोटा देश में सबसे बड़ा कोचिंग का हब बन चुका है। जहां हर साल करीब 2 से 3 लाख बच्चे प्रतियोगी परिक्षाओं खासकर इंजीनियरिंग और मेडिकल की तैयारी करने आते हैं। आज कोटा में कोचिंग इंडस्ट्री करीब 4 हज़ार करोड़ तक पहुंच चुकी है। आज कोचिंग इंडस्ट्री कोटा की रीढ़ है। कोटा से अब तक करीब 50 हजार से ज्यादा स्टूडेंट्स यहां से पढ़कर आईआईटी सहित देश के प्रतिष्ठित कॉलेजों में प्रवेश पा चुके हैं।

कोटा में स्टूडेंट्स Suicide(आत्महत्या) क्यों करते हैं?

कोचिंग नगरी कोटा में छात्रों के सुसाइड (आत्महत्या) के मामले बढने लगे हैं। पिछले दिनों एक साथ तीन छात्रों ने आत्महत्या कर ली। आंकड़े बताते हैं कि 2019 में 18 और 2020 में 20 छात्रों ने अपनी जान दे दी थी। 2021 में किसी भी छात्र ने आत्महत्या नहीं की क्योंकि कोरोना के चलते क्लासेज घर से चलती थी। लेकिन एबीपी न्यूज की खबर के अनुसार इस साल एक म​हीने में ही कोटा में तैयारी कर रहे 8 बच्चों ने Suicide (आत्महत्या) कर लिया। जिसके बाद देशभर की निगाहें एक बार फिर कोटा पर आ टिकी है। बहस छिड़ी है कि क्यों सुनहरे भविष्य का सपना लेकर कोटा आने वाले बच्चे Suicide (आत्महत्या) करने को मजबूर हो रहे हैं।

प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे बच्चे हर रोज व्यस्त दिनचर्या, गलाकाट प्रतियोगिता और होमसिकनेस ये सभी फैक्टर अवसाद को बढ़ाते हैं जिससे कमजोर क्षणों में छात्रों के लिए आत्मघाती बन रहे हैं। मीडिया रिपोर्ट्स बताती है कि कोटा आने वाले छात्र कहीं न कहीं कठिन सफर के लिए मानसिक रूप से तैयार होते हैं लेकिन प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी का समय लंबा होता है। ऐसे में कई पहली बार परिवार को छोड़कर पढ़ने के लिए दूर आते हैं। इसलिए होमसिकनेस के साथ पढ़ाई का दवाब अक्सर उनके लिए कमजोर पल का निर्माण करता है। जिसमें वे खुद को अकेला महसूस करते हैं।

खबरें बताती है कि 10 महीने की तैयारी का शेड्यूल इतना व्यस्त होता है कि ब्रेक के दौरान बच्चे घर भी नहीं जा पाते हैं। हमेशा छुट्टियों में उन्हें पढ़ाई में पिछड़ जाने का डर सताता रहता है। यह ऐसा है कि यदि आप दो दिनों की क्लास मिस करते हैं तो आपकी पढ़ाई दो सप्ताह पीछे जा सकती है। कई बच्चे पहली बार कोटा आते हैं और पढ़ाई के दबाव में घर नहीं जा पाते, जिससे मानसिक तनाव में आ जाते हैं। कोटा आए विद्यार्थियों के इंटरव्यू बताते हैं कि पढ़ाई का ये तनाव रियल है। जब एक छात्र चीजों के साथ तालमेल बिठाने में फेल हो जाता है तो छूटे हुए लेक्चर का बैगलॉग बढ़ता जाता है। ऐसे में छात्र अपने पढ़ाई के तरीके को दोष देता है और डिप्रेशन में चला जाता है।

रिपोर्ट्स बताती है कि मां-बाप का पढ़ाई में लगाया पैसा बेकार न चला जाए, ऐसे में छात्र और तनाव में रहने लगते हैं। बच्चे सोचते हैं कि वे यहां आने के बाद तैयारी पर अधिक ध्यान दूेंगे लेकिन यहां पूरी तरह से एक अलग दुनिया है। अब न केवल यहां खुद सब कुछ मैनेज करना पड़ता है बल्कि यह भी सोचना पड़ता है कि माता-पिता ने पैसा लगाया है और अगर असफल रहा तो आगे क्या होगा।

यहां पर एक साल पढ़ाई का खर्च डेढ़ लाख से करीब 5 लाख रुपए तक आता है। य​ह आपके कोचिंग सेन्टर और सुविधाओं पर निर्भर करता है। ऐसे में सभी स्टूडेंट्स के माता पिता इतने समर्थ नहीं होते कि खुद का पैसा लगा सके। ऐसे में वे लोन लेकर, जमीन गिरवी रखकर भी बच्चों को कोटा भेजते हैं। ऐसे में बच्चों पर अधिक दबाव रहता है कि कैसे भी करके एग्जाम क्रेक करना है। अगर एग्जाम क्रेक नहीं किया तो घर पर कर्जा बढ़ जाएगा, जो कैसे चुकाएंगे। कई बार इस दबाव, परीक्षा में असफल रहने, अच्छी तैयारी नहीं कर पाने आदि वजहों से भी बच्चे सुसाइड ( जैसा कदम उठा लेते हैं। इसके अलावा घूमने जाने नहीं मिलना, दोस्तो और सामाजिक जीवन से दूरी, मनोरंजन नहीं होना जैसे कारणों से भी बच्चे खुद को अकेला पाते हैं और कुछएक Suicide (आत्महत्या) जैसा कदम उठा लेते हैं।

लेकिन बड़ी संख्या में वे बच्चे भी होते हैं जो इन सब प्रतिकूल परिस्थितियों को फेस करते हुए देश के नामी संस्थानों में पढ़ने जा पाते हैं और फिर बड़ी जगहों पर नौकरी पाते हैं। कहा जाता है कि देश की मेडिकल और इंजीनियरिंग की कुल सीटों में से करीब 30 प्रतिशत सीटें कोटा से कोचिंग करके आने वाले बच्चों की होती है। देश के टॉप संस्थानों में कोटा से कोचिंग किए विद्यार्थी बड़े पदों पर काम कर रहे हैं।

कैसे रुकेगी कोटा में स्टूडेंट्स की आत्महत्याएं?

वर्ष 1991 से शुरू होकर 2023 की शुरुआत तक यानी करीब 32 साल में कोटा में बहुत कुछ बदल गया है। कोचिंग हब बनने से लेकर अब स्टूडेंट्स के Suicide (आत्महत्या) हब बनते कोटा के कोचिंग सेंटर्स के लिए यह सोचना जरूरी हो गया है कि कोटा में स्टूडेंट्स की आत्महत्याएं कैसे रूकेंगी। इसका जवाब यही है कि स्टूडेंट को बॉक्स नहीं बनाकर उसे खुलापन मिले। स्टूडेंट्स को भी घूमने, फिल्में देखने सहित खुद के लिए वक्त मिले। विशेषज्ञ बताते है कि परिवार और दोस्तों से दूरी के बाद सिर्फ किताबों में उलझी जिंदगी ने कोटा आने वाले कई बच्चों को तनावपूर्ण बना दिया है। इसमें से अधिकतर तो इसका सामना कर पाते हैं लेकिन कुछएक जो ग़लत कदम उठाकर जीवन लीला खत्म कर देते हैं। इसे रोकने के लिए कोटिंग सेन्टर्स को आपसी प्रतिस्पर्धा को भी कम करना होगा। क्योंकि अच्छे परिणाम लाने, अपने सेंटर को आगे बढ़ाने के चक्कर में कई बार कोचिंग सेन्टर्स बच्चों पर पढ़ाई अतिरिक्त दबाव भी डालते हैं, बच्चों को छु​ट्टियां नहीं मिल पाती हैं। वे मनोरजंन की दुनियां से कटे रहते हैं ऐसे में अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं, इसे बदलने की जरूरत है।

विशेषज्ञों का कहना है कि इसके अलावा मॉं बाप को भी ये समझना होगा कि खुद के सपने बच्चों पर नहीं डाले। बच्चों को उसकी योग्यता के अनुरूप पढ़ने दें। कई बार मॉं बाप अन्य बच्चों और परिवारों को देखकर अपने बच्चों को भी मेडिकल और इंजीनियरिंग की कोचिंग के लिए कोटा भेजते हैं और बच्चों पर दबाव होता है कि वे अच्छी रैंक के साथ परीक्षा में क्वालीफाई हो, ऐसे में बच्चे अवसाद से भर जाते हैं और अपनी बात किसी को बता नहीं पाते और सुसाइड (आत्महत्या) तक कर लेते हैं।

इसके अलावा य​ह भी देखना चाहिए कि बच्चे की उम्र और समझ कितनी है। आज के समय में बच्चों को 9वीं और 10वीं से ही मेडिकल और इंजीनियरिंग की कोचिंग करवाई जा रही है जोकि उसकी उम्र और दबाव झेलने के लिए अनुकूल नहीं होती है। इसे भी बदलने की जरूरत है। हमें बच्चों को खुलापन, उसकी योग्यता के अनुरूप स्ट्रीम दिलाने और कोटा भेजने की स्थिति में एक दिन खुद के लिए देने की आवश्यकता पर काम करना होगा, तभी हम इसे बदल पाएंगे।

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