पिछले कुछ दिनों से बैंकर्स की ओर से सोशल मीडिया सहित विभिन्न स्थानों पर केन्द्र सरकार द्वारा प्रस्तावित 2 राष्ट्रीयकृत बैंकों के निजीकरण के खिलाफ आंदोलन चलाया जा रहा है। बैंकर्स इसे देश बचाओ, बैंक बचाओ मुहिम से आम जनता को बैंकों के निजीकरण के खिलाफ साथ आने की अपील कर रहे हैं। इस संबंध में बैंकर्स की ओर से पब्लिक स्ट्राइक के नाम से 16 व 17 दिसंबर को राष्ट्रव्यापी हड़ताल भी बुलाई गई है। जिसमें देशभर के करीब 11 लाख कर्मचारी शामिल हो रहे हैं। इसमें 9.34 लाख राष्ट्रीयकृत एवं 1.66 लाख ग्रामीण बैंक के कर्मचारी शामिल हैं। हड़ताल से 1.18 लाख शाखाएं बंद रहेंगी।
क्या होता है निजीकरण?
निजीकरण का सीधा अर्थ यह है कि सरकारी संस्था को एक तरह से निजी हाथों में बेच देना। इसके पीछे भले ही अन्य तर्क दिए जाए लेकिन आशय यही होता है। दूसरे शब्दों में यह ऐसी आर्थिक प्रक्रिया है जिसके तहत सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, औद्योगिक संस्थानों और इकाइयों का स्वामित्व सरकार के हाथों से निकल कर निजी व्यक्तियों या समूहों को दे दिया जाता है। या फिर सरकार द्वारा अपनी हिस्सेदारी इतनी कम कर दी जाती है जिससे कि स्वामित्व संचालन सब कुछ निजी समूह या व्यक्ति के द्वारा ही किया जाता है।
अब इसे बैंक के निजीकरण के संबंध में देखा जाए तो यह सरकार अगर बैंक का निजीकरण करती है तो उन बैंकों का स्वामित्व सरकार से हटकर निजी हाथों में चला जाएगा। उसके नियंत्रण से लेकर सेवा, शुल्क और कर्मचारी हितों का फैसला भी निजी व्यक्ति और समूह के द्वारा किया जाएगा। वर्तमान में बैंकर्स के द्वारा इसी का विरोध किया जा रहा है कि सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों का निजीकरण नहीं किया जाना चाहिए। इससे पूर्व सरकार आईडीबीआई बैंक का निजीकरण कर चुकी है।
क्या है मामला?
आइए समझते हैं कि ये पूरा मामला है क्या! दरअसल, सरकार शीतकालीन सत्र में बैंकिंग कानून संशोधन विधेयक लाने की तैयारी कर रही है। जिसका मुख्य उद्देश्य बैंकों के निजीकरण का रास्ता आसान करना है।
इसके तहत सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों में न्यूनतम सरकारी हिस्सेदारी 51 से घटाकर 26 प्रतिशत किए जाने की संभावना है। हालांकि वित्त मंत्री ने यह जरूर कहा है कि ऐसी कोई योजना नहीं है, अंतिम फैसला मंत्रिमंडल लेगा, लेकिन फिर भी संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता है।
जब बैंक फायदे में तो निजीकरण क्यों?
बैंकर्स की ओर से यह भी कहा जा रहा है कि जब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक फायदे में चल रहे हैं तो उनका निजीकरण करने का क्या औचित्य है। और अगर सरकार यह कह रही है कि वे घाटे में चल रहे हैं तो ऐसे में कौनसा निजी समूह घाटे में चल रही बैंक को खरीदना चाहेगा।
हालांकि सरकार इसे किसी दूसरे चश्मे से ही देख रही है। बीबीसी की खबर के अनुसार पिछले 3 वर्षों में ही सरकार बैंकों में डेढ़ लाख करोड़ रुपए की पूंजी डाल चुकी है और 1 लाख करोड़ रुपए से ज़्यादा की राशि रीकैपिटलाइजेशन बॉंड के तहत बैंकों को दी गई है। बैंकों पर यह बोझ राजनीतिक लाभ के लिए सरकारों के फैसले से आया है। इसमें मुख्य है किसानों की ऋण माफी, अधिकाधिक ऋण प्रदान करने के टारगेट देना और फिर लोन की रिकवरी नहीं हो पाना।
बीबीसी के अनुसार अब सरकार इस मुसीबत से निकलने के लिए लंबी योजना पर काम कर रही है। इसी के तहत सरकार द्वारा पिछले कुछ बरसों में सरकारी बैंकों की संख्या 28 से घटाकर 12 कर दी गई है। अब सरकार इस आंकड़े को और कम करना चाहती है। सरकार का फॉर्मूला यह है कि कुछ कमज़ोर बैंकों को दूसरे बड़े बैंकों के साथ मिला दिया जाए और बाक़ी के बैंको को बेच दिया जाए।
इससे सरकार को बार बार बैंकों में पूंजी डालकर उन्हें सुधारने से छूटकारा मिल जाएगा। बीबीसी के अनुसार पिछले 20 वर्षों में ऐसा कई बार निर्णय लिया गया, लेकिन विरोध के चलते पूर्ण नहीं हो सका था।
निजीकरण नहीं नियुक्तियां दो
निजीकरण के विरोध के साथ ही बैंकर्स सार्वजनिक बैंकों में पदों को बढ़ाने और रिक्त पदों को भरने की मांग कर रहे हैं। स्वयं वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण भी कह चुकी हैं कि सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों में 41,177 पद खाली पड़े हैं। इतना ही नहीं अगर निजी बैंकों में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या से तुलना की जाए तो यह आंकड़ा लाख से आगे निकल जाता है।
ऐसे में बैंकर्स का कहना है कि सुधार के लिए बैंकों का निजीकरण नहीं उनमें सुविधाएं बढ़ाई जाने की आवश्यकता है। आज भी प्रति कर्मचारी कस्टमर्स की संख्या के मामले में सार्वजनिक बैंक पिछड़े हुए हैं। सार्वजनिक बैंकों में खाते अधिक हैं, संसाधनों का अभाव है, उनमें सुधार किया जाना चाहिए। इसके अलावा बैंकर्स का यह भी कहना है कि निजीकरण के बाद आम जनता के लिए बैंकों की सुविधाएं लेना मुश्किल हो जाएगा।
बैंक निजीकरण के क्या नुकसान है?
बैंक निजीकरण के बाद बैंकर्स, विपक्ष और विशेषज्ञों द्वारा कई तर्क दिए जा रहे हैं, वे इस प्रकार है।
- निजी बैंक मनमानी करेंगे
- जमा राशि सुरक्षित नहीं होगी
- सुविधा के नाम पर मनमाना चार्ज लिए जाएगा
- न्यूनतम जमा राशि की पाबंदी होगी जो कि निजी बैंक की ज्यादा होती है
- गरीबों की पहुंच से दूर
- महंगी दरों पर ऋण देंगे
- बैंक से जुड़ी सरकार योजनाओं का क्रियान्वयन मुश्किल
- गांवों तक सुविधाएं नहीं पहुंच सकेंगी
- बैंकों में रोजगार के अवसर समाप्त होंगे आदि।
बैंक निजीकरण के पक्ष में तर्क
जहां बैंकर्स और आमजन बैंक निजीकरण के विरोध में हैं तो कुछ लोग इसके पक्ष में भी तर्क दे रहे हैं जो इस प्रकार है।
- कर्मचारियों की कार्य कुशलता बढ़ेगी
- बैंकिंग सेवाओं में विस्तार होगा
- बैंकिंग सुविधाएं बेहतर होगी
- कस्टमर्स के प्रति बैंकर्स का रवैया बदलेगा
- कस्टमर्स को ज्यादा सुविधाएं मिल सकेंगी
- ऋण मिलने में आसानी होगी
- समय की बचत होगी आदि।
इसके अलावा विपक्ष भी केन्द्र सरकार को बैंक निजीकरण के मुद्दे पर घेर रहा है। विपक्ष का भी कहना है कि यह सरकार सरकारी सम्पत्तियों को निजी हाथों में देना चाहती है। बहरहाल, अब देखना यह कि विरोध के बाद केन्द्र सरकार इस पर क्या निर्णय लेती है।